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Showing posts from 2013

जंजीर

बाबुल मोहे राजा घर ना दीजो , मोहे राज- पाढ़ ना भाये... बाबुल मोहे ज़मींदार घर भी ना दीजो , मोहे धन- धान्य ना भाये ... बाबुल मोहे सुनार घर भी  ना दीजो,  मोहे जेवर- जवाहरात ना भाये ... बाबुल मोहे लोहार घर ही दीजो,  जो मोरी जंजीर पिघलाए ... मन के पिजरे में लगे, मोरे ताले  तुडाये … पिंजरे से निकल उड़ चलु, मै भी उस नील गगन की ओर , सुना बहुत है बारे में जिस के, पर जंजीर तले देख जिसे ना पाई कभी ...    बाबुल मोहे लोहार घर ही दीजो,  जो मोरी जंजीर पिघलाए… मोरी जंजीर पिघलाए...  ...

फिर ले आया मन

फिर उड़ चला ये   मन,  कागज़ और कलम की तलाश में  फिर मचल उठा ये मन ... कुछ बीते पल, कुछ बीते लमहे , अपनी जुबानी गुनगुनाने को  फिर  मचल उठा  ये मन , फिर उड़ चला ये मन ... हर दिल में जागते सपनों  को समझ कर, समझाने को  फिर मचल उठा  ये मन , फिर उड़ चला ये मन ... एक पक्की दोस्ती, एक सच्चे प्यार  को अपने दिल के शीशे से , दुनिया को दिखाने को ,  फिर मचल उठा ये मन , फिर उड़ चला ये मन ... कागज़ और कलम की तलाश में  फिर मचल उठा ये मन ...

गर्मियों की छुट्टियाँ

दो महीने की लम्बी छुट्टियाँ , दादी और नानी के घर पर बिताती ... रात को दादी की राजा- रानी की कहानियों में , खुद को  राजकुमारी मान कर ,  अपने ही सपनों में खो कर, सो  जाती ...    सुबह उठ कर, नानी के संग पूजा की थाली , फूलों से  सजाती और  उन के भजनों, के दो-चार शब्द  जो समझ आते, उन के साथ गुन-गुना कर बड़ी  खुश  हो जती ...  दादा के संग बजार घुमने जाती, और पड़ोस के चाचा की दुकान  पर   बैठे, लोगो को,  राम- राम साहब कह के,  उन से चार  टॉफ़ी पा कर , अपनी फ्हराक की छोटी-छोटी जेबॆए भर  लाती  ... दोपहर को नाना के संग ताश खेलती,  और कागज के गुलाम- बादशाहों  की  अनोखी दुनिया में खो कर, नाना की गोदी के तकिये पर,  सर रख कर सो जाती ... शाम को चाचा- चाची और मामा-मामी,  वाले दीदी-भईया के संग  लुक्का-छुप्पी  खेलती, और सब को भाग- भाग कर पकड़ लेती ... आज भी खेल तो वही  लुक्का-छुप्पी   का  चल रहा है, पर गर्मियों की वो   छुट्टियाँ , खुद ही जाने  कहाँ  जा कर छुप गई  हैं  ... कि मेरे खूब खोजने

ODE to the MEMORY LANE

I have a secret friend who lives with me all the time, who takes care, of all the times when I’m sad, of all the times when I feel lonely, of all the times when I’m fighting with a confluence with in my mind. She sits back patiently taking me back to the times, when expressions flew genuinely, when people meant what they said and you didn’t have to get your mind all juggled up, deciphering the difference between what people said and what they meant. And at all these times when mind is making a to and fro motion like a pendulum, this friend of mine comes at my rescue, taking me away from this to that world , from ultimate conflux to eternal peace. Even though the life has changed a lot here , still this friend of mine has preserved another life for me, there , in which I was an original version of myself , in which thoughts flew out swiftly and were received with acceptance and genuine criticism.  As the times have changed, life was taken its form, from its imaginary version

रूबरू

घर से निकली तो थी,  मै दोस्तों कि तलाश में , पर इस तलाश में,  मैने बस एक साये को ही पाया है ... एक साया जो दीखता तो, कही न कही है,  मुझ सा ही , पर न जाने क्यों, मुझ से ही  है  अनजान  सा कही ... एक साया जो हर पल,    है तो  मेरे साथ ही , पर न जाने क्यों मुझ से ही  है   रूठा  सा कही ... और मेरा ये मन आज भी, इसी असमंजस  में पड़ा है  कि,  ये जो  साया है, जो है तो मेरा ही,  जो समाया भी है, मुझ में ही कही न कही ,   क्या मुझसे,ये रूबरू है भी, या नहीं ... 

परछाई

ज़िन्दगी इस कदर बदल जाएगी,  कभी ऐसा मैने  सोचा ना था ... तुम्हारी परछाई ना जाने कब, मेरी अपनी   बन गई मुझे पता भी ना चला ... और अब तुम्हारी इस परछाई  की छाव में इतनी दूर आ गई हू , कि तुम्हारे बिना ये ज़िन्दगी कैसी  हुआ करती थी , ये याद भी नहीं है मुझे ... तुम्हारे पास ना होते हुए भी , तुम्हारा एहसास ही मेरा हमसफ़र  बन जाएगा , कभी ऐसा मैने सोचा ना था ... और अब  वक़्त के  साथ , ये एहसास इतना गेहेरा गया है,  कि मेरा हर ज़िक्र तुम्हारे ज़िक्र,  के बिना अधूरा सा है ... ज़िन्दगी इस कदर बदल जाएगी, कभी ऐसा मैने  सोचा ना था ...