दो महीने की लम्बी छुट्टियाँ ,
दादी और नानी के घर पर बिताती ...
रात को दादी की राजा- रानी की कहानियों में ,
खुद को राजकुमारी मान कर ,
अपने ही सपनों में खो कर, सो जाती ...
सुबह उठ कर, नानी के संग पूजा की थाली,
फूलों से सजाती और उन के भजनों,
के दो-चार शब्द जो समझ आते,
उन के साथ गुन-गुना कर बड़ी खुश हो जती ...
दादा के संग बजार घुमने जाती,
और पड़ोस के चाचा की दुकान पर बैठे,
लोगो को, राम- राम साहब कह के,
उन से चार टॉफ़ी पा कर ,
अपनी फ्हराक की छोटी-छोटी जेबॆए भर लाती ...
अपनी फ्हराक की छोटी-छोटी जेबॆए भर लाती ...
दोपहर को नाना के संग ताश खेलती,
और कागज के गुलाम- बादशाहों की
अनोखी दुनिया में खो कर,
नाना की गोदी के तकिये पर,
सर रख कर सो जाती ...
शाम को चाचा- चाची और मामा-मामी,
वाले दीदी-भईया के संग लुक्का-छुप्पी खेलती,
और सब को भाग- भाग कर पकड़ लेती ...
आज भी खेल तो वही लुक्का-छुप्पी का
चल रहा है, पर गर्मियों की वो छुट्टियाँ ,
खुद ही जाने कहाँ जा कर छुप गई हैं ...
कि मेरे खूब खोजने पर भी,
मुझे वो, मिल ही नहीं,पा रही हैं ...
Old memories revisited, and how. As I sit in my AC office and type this, I feel how much life has changed. Great great creation.
ReplyDeleteyes...things were pretty simple back then, "getting happy on getting a few chocolates". However sometimes it seems as if we our selves have made them so complicated...
ReplyDeleteWhen we keep our feet loose, we feel we should have that much a casual attitude and when we keep them tight, we feel loose was better and the vicious circle continues...:)
very simple, beautiful and touching...keep up the good work..
ReplyDeleteBeautiful :-)
ReplyDeleteso beautiful :-)
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