बंद कमरों से झांकती ये ज़िन्दगी,
तुम से कभी तो मुझ से कभी,
कुछ मांगती ये ज़िन्दगी...
हर पल, हर लम्हे में कुछ कहेती है,
कभी कुशी तो, कभी गम को सहेति है...
कहेना तो बहुत कुछ चाहती है,
पर संसार के अन्गिन्नत परदों में कही,
सिमट कर ही रह जाती है...
फूल की कलि से ताज़ी थी,
जब नन्ही सि थी...
ना जाने कितने सपने बुना करती थी,
बादलो की सवारी, तो कभी तारो को छुने,
की चाहत रखा करती थी...
पर जैसे जैसे बड़ी हुई,
तो वो ताज़गी कही खो सि गई...
बादल भी वही है, तारे भी वही,
पर वो सपने देखने से,
जाने क्यों डरने लगी है...
बंद कमरों से झांकती ये ज़िन्दगी,
तुम से कभी तो मुझ से कभी,
कुछ मांगती ये ज़िन्दगी...
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