छुट्टी का वो दिन और जाड़े की वो दोपहर,
मेरे घर की छत और छत पर बैठी,
मै और मेरी प्यारी सी माँ…
माँ के कोमल आँचल में सिम्मट कर,
बड़ी सहजता से हर दुख को भुला देती,
और आंसू कब मुस्कराहट बन जाते,
पता भी ना चलता था…
हालाकी आज भी छुट्टी का वही दिन है,
वही जाड़े की दोपहर है…
पर माँ का वो कोमल आँचल,
कही दूर सा हो गया है,
भूली बिसरी यादों में कही
खो सा गया है…

Comments
Post a Comment